सीमा पार हिंसा और भीतर सियासत, बांग्लादेश फैक्टर से कितना बदलेगा बंगाल चुनाव?
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सीमा पार हिंसा और भीतर सियासत, बांग्लादेश फैक्टर से कितना बदलेगा बंगाल चुनाव?

बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमलों की गूंज बंगाल की सियासत में तेज है। सवाल है कि क्या यह मुद्दा ममता की मजबूत पकड़ को चुनौती दे पाएगा?


बांग्लादेश में हाल के घटनाक्रमों की छाया अब पश्चिम बंगाल पर भी पड़ती दिख रही है। एक ऐसा सीमावर्ती राज्य जहां अगले वर्ष मई में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। हाल के दिनों में राज्य में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कई विरोध-प्रदर्शन किए। ये प्रदर्शन बांग्लादेश में एक हिंदू व्यक्ति, दीपु चंद्र दास, की कथित तौर पर ईशनिंदा के आरोप में उग्र भीड़ द्वारा की गई लिंचिंग और उसके बाद शव को जलाए जाने की घटना के विरोध में हुए।

हादी की मौत के बाद का माहौल

यह घटना बांग्लादेश में उस अशांति के दौर में सामने आई, जो कुछ सप्ताह पहले ढाका में युवा नेता शरीफ उस्मान हादी की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या किए जाने के बाद शुरू हुई थी। बांग्लादेश की राजनीतिक पार्टियों ने जांच में कोई ठोस प्रगति होने से पहले ही इस हमले के लिए पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना और भारत को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया था।

बांग्लादेश पुलिस का दावा है कि हादी पर हमला करने वाले दो आरोपी अब उसकी हिरासत में हैं, जिन्हें मेघालय के अधिकारियों ने सौंपा था। हालांकि, भारत ने स्पष्ट रूप से इस दावे को खारिज करते हुए कहा है कि आरोपी भारत में पाए ही नहीं गए थे। विश्लेषकों का कहना है कि यह मुद्दा भारत और बांग्लादेश के बीच पहले से ही तनावपूर्ण रिश्तों पर नया दबाव डाल सकता है।

पश्चिम बंगाल में विरोध और चुनावी संदर्भ

बांग्लादेश के घटनाक्रमों के खिलाफ पश्चिम बंगाल में हुए विरोध ऐसे समय पर हुए हैं, जब नरेंद्र मोदी सरकार भारत में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की पहचान के लिए मतदाता सूचियों में सुधार की कोशिश कर रही है ताकि वैध मतदाताओं के रूप में दर्ज अवैध प्रवासियों को चिन्हित किया जा सके। स्थानीय लोगों की ओर से यह शिकायतें भी सामने आई हैं कि सीमावर्ती इलाकों में बांग्लादेशी नागरिकों ने कई संपत्तियां खरीदी हैं, जिन्हें सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का कथित मौन समर्थन प्राप्त है।

पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी

2011 की जनगणना के अनुसार, पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 2.46 करोड़ से अधिक है, जो राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 27 प्रतिशत है। इनमें अधिकांश जातीय रूप से बंगाली हैं। हालांकि, कुछ आकलन बाहरी लोगों की मौजूदगी का दावा करते हुए राज्य में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत करीब 30 तक बताते हैं।

भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार सुवेंदु अधिकारी ने कोलकाता में बांग्लादेश के उप उच्चायुक्त कार्यालय के सामने भाजपा कार्यकर्ताओं और हिंदू धार्मिक नेताओं के साथ एक बड़ा प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन दीपु दास और बांग्लादेश में अन्य हिंदुओं पर हुए हमलों के विरोध में था। अधिकारी ने चेतावनी दी कि यदि बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले जारी रहे, तो भारत की विशाल हिंदू आबादी इसे चुपचाप नहीं देखेगी और उन्हें रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाएगी।

भाजपा का उभार और सियासी गणित

पिछले एक दशक में पश्चिम बंगाल में भाजपा का उभार बेहद प्रभावशाली रहा है। पार्टी ने वाम दलों और कांग्रेस दोनों को हाशिये पर धकेलते हुए खुद को राज्य का मुख्य विपक्षी दल बना लिया है, जबकि इन दोनों ने लंबे समय तक राज्य पर शासन किया था। भाजपा अब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली टीएमसी सरकार को हटाकर सत्ता में आने की पूरी कोशिश कर रही है। ममता बनर्जी तीसरी बार लगातार सत्ता में लौटने की आकांक्षा रखती हैं।

‘एक बंगाल’ का असर ‘दूसरे बंगाल’ पर

हाल के दिनों में बांग्लादेश के घटनाक्रम मीडिया और राज्य के राजनीतिक गलियारों में चर्चा का प्रमुख विषय बने हुए हैं। ऐतिहासिक रूप से, ‘एक बंगाल’ में होने वाले घटनाक्रमों का असर सीमा पार ‘दूसरे बंगाल’ पर पड़ता रहा है। पिछले वर्ष छात्रों के उस आंदोलन ने, जिसने शेख हसीना को सत्ता से बाहर कर दिया था, पश्चिम बंगाल के युवाओं पर भी गहरा प्रभाव डाला। इसका असर आरजी कर अस्पताल आंदोलन के दौरान भी देखा गया, जब एक युवा महिला डॉक्टर के साथ कथित तौर पर सत्तारूढ़ दल से जुड़े गुंडों द्वारा दुष्कर्म किए जाने के विरोध में ममता सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हुए थे।

उत्तर बंगाल से भाजपा विधायक शंकर घोष ने कहा, बांग्लादेश में हो रहे घटनाक्रम, खासकर दीपु दास की लिंचिंग और शव जलाए जाने की घटना, पश्चिम बंगाल के लोगों को प्रभावित कर रही है। यहां के हिंदू पड़ोसी देश में अपने सहधर्मियों के साथ हो रहे व्यवहार को लेकर चिंतित हैं।

घोष ने माना कि बांग्लादेश की घटनाएं आगामी विधानसभा चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल में एक मुद्दा बन सकती हैं, खासकर यदि आने वाले महीनों में हिंदुओं पर इसी तरह के हमले होते रहे। उनका मानना है कि बांग्लादेश की स्थिति को ममता बनर्जी के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है, क्योंकि भाजपा और अन्य दल पहले से ही उन पर हिंदू बहुसंख्यक राज्य में मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाते रहे हैं।

तीसरे कार्यकाल की तैयारी में ममता

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस मई 2011 से सत्ता में है। हालांकि, मुख्य विपक्षी भाजपा ने राज्य में अपने संगठन और प्रभाव को लगातार मजबूत किया है और आगामी चुनाव में टीएमसी सरकार को हटाने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है। वर्तमान विधानसभा में 294 सीटों में से टीएमसी के पास 215 सीटें हैं, जबकि भाजपा के पास 77 सीटें हैं। वोट शेयर के लिहाज से ममता बनर्जी भाजपा से लगभग 10 प्रतिशत आगे हैं। 2011 में वाम मोर्चे की 34 साल पुरानी सरकार को हराने के बाद से मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा हिस्सा टीएमसी के साथ रहा है।

दूसरी ओर, भाजपा ने हिंदू बहुसंख्यक मतों को एकजुट कर ममता सरकार को हटाने की कोशिश की है। बावजूद इसके, मीडिया में बने माहौल और सत्ता-विरोधी लहर की चर्चाओं के बीच ममता लगातार चुनाव जीतती रही हैं। ममता की जीत का एक बड़ा कारण राज्य में मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन रहा है।

भाजपा के हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के प्रयासों के बावजूद, हिंदू मतदाताओं का बड़ा वर्ग अब तक टीएमसी छोड़कर भाजपा के साथ जाने से हिचकता रहा है।हालांकि, मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप, विकास की कमी और व्यापक भ्रष्टाचार के आरोप अब ममता के खिलाफ मतदाताओं के एक हिस्से में चर्चा का विषय बनने लगे हैं।

इस पूरे परिदृश्य में यह सवाल अभी बहस का विषय है कि क्या बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे हमलों को पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की मुस्लिमों के प्रति नरम रुख से जोड़ा जा सकता है। ममता के करीबी सूत्रों का कहना है कि फिलहाल बांग्लादेश के घटनाक्रम चिंता का विषय नहीं हैं, लेकिन यदि चुनाव की आधिकारिक घोषणा के बाद भी ये घटनाएं जारी रहीं, तो यह समस्या बन सकती है।

वहीं, कुछ विश्लेषक अब भी भाजपा की ममता को सत्ता से हटाने की क्षमता को लेकर संदेह में हैं। उनका तर्क है कि चुनाव से पहले भाजपा जितना माहौल बनाती है, वह मतदान के दिन मतदाताओं के फैसले में तब्दील नहीं हो पाता। कोलकाता स्थित राजनीतिक टिप्पणीकार निर्मल्य मुखर्जी ने कहा, “ममता अब भी भाजपा से लगभग 10 प्रतिशत वोट शेयर की बढ़त बनाए हुए हैं, और भाजपा के लिए इस अंतर को पाटना आसान नहीं है।

उनका यह भी कहना है कि जब तक जमीनी स्तर पर ममता के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं होता, तब तक टीएमसी की पकड़ को तोड़ना मुश्किल रहेगा। आने वाले महीने यह संकेत देंगे कि क्या वास्तव में जमीनी स्तर पर ममता के खिलाफ कोई ऐसा आंदोलन आकार ले रहा है, जो उनके तीसरे कार्यकाल के सपने को चुनौती दे सके।

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